बुधवार, 6 जून 2012

ग़ज़ल



कल  तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक  शक्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है

बीती उम्र कुछ इस तरह की खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है

गर कहोगें दिन  को दिन तो लोग जानेगें गुनाह 
अब आज के इस दौर में दिख्रे नहीं इन्सान है

इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये वक़्त की साजिश है या फिर वक़्त का एहसान है

गैर बनकर पेश आते, वक़्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है 

प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर 
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है 
 
ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

3 टिप्‍पणियां:

  1. इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
    ये वक़्त की साजिश है या फिर वक़्त का एहसान है

    हर लफ्ज़ में आपने भावों की बहुत गहरी अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है... बधाई आपको.

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  2. बीती उम्र कुछ इस तरह की खुद से हम न मिल सके
    जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है

    so nice.

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