मंगलवार, 28 मई 2013

चुप्पी

आखिर क्यों ऐसा होता कि नेताओं को जब अपने विचार रखने चाहियें तो चुप हो जातें है और जिस बात से उनका दूर दूर तक लेना देना नहीं होता है उस पर बिना सोचे समझे बोले चले जातें है. अरुण जेटली ,नरेन्द्र मोदी, शरद पवार ,सी पी जोशी ,राजीब शुक्ल ,किरण रेड्डी की चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है. 

मदन मोहन सक्सेना .

शुक्रवार, 24 मई 2013

दोस्ती



























कभी गर्दिशों से दोस्ती कभी गम से याराना हुआ
चार पल की जिन्दगी का ऐसे कट जाना हुआ..

इस आस में बीती उम्र कोई हमे अपना कहे .
अब आज के इस दौर में ये दिल भी बेगाना हुआ

जिस रोज से देखा उन्हें मिलने लगी मेरी नजर
आखो से मय पीने लगे मानो की मयखाना हुआ

इस कदर अन्जान हैं हम आज अपने हाल से
हमसे मिलकरके बोला आइना ये शख्श बेगाना हुआ

ढल नहीं जाते हैं लब्ज यूँ ही रचना में कभी
कभी ग़ज़ल उनसे मिल गयी कभी गीत का पाना हुआ

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 15 मई 2013

कोशिश


13 ट्रेनें , 5,000 बसें और 60 नावों का इंतज़ाम करके  समर्थकों को पटना लाने के लिए लालू ने परिबर्तन रैली करके ये दिखाने की  कोशिश की है की जनता अब परिबर्तन चाहती हैं .
देखना होगा कि इस तामझाम से लालू परिबार की किस्मत कितनी बदल पाती है.
परिवार, परिवर्तन या पद। चाहिये क्या । पटना के गांधी मैदान में पटे पड़े पोस्टर को देख कर हर किसी ने कहा परिवार। पोस्टर को पढ़ा तो हर किसी को लगा बात तो परिवर्तन की हो रही है। और जब भाषण हुआ तो लगा लड़ाई तो सत्ता की है, पद पाने की है। पटना के गांधी मैदान ने इतिहास बनते हुये भी देखा है और बने हुये इतिहास को गर्त में समाते हुये भी देखा है। लेकिन पहली बार गांधी मैदान ने जाना समझा कि वक्त जब बदलता है तो संघर्ष के बाद परिवर्तन से ज्यादा संघर्ष करते हुये नजर आना ही महत्वपूर्ण हो जाता है। यह सवाल लालू यादव के लिये इसलिये है क्योंकि कभी जेपी के दांये-बांये खड़े होकर लालू और नीतीश दोनों ने इंदिरा गांधी को घमंडी और तानाशाह कहते हुये जेपी की बातों पर खूब तालियां बजायी हैं। और सत्ता में खोते देश में सत्ता के लिये हर संघर्ष करने वाले को सत्ताधारी अब तानाशाह और घमंडी नजर आने लगा है। यह सच भी है कि कमोवेश हर सत्ताधारी तानाशाह और घमंडी हो चला है। लेकिन इसे तोड़ने के लिये क्या वाकई कोई राजनीतिक संघर्ष हो रहा है। असल में लालू यही चूक रहे हैं और नीतिश इसी का लाभ उठा रहे हैं। दरअसल, इतिहास के पन्नों को टटोलें तो पटना के गांधी मैदान में लालू यादव और नीतिश कुमार ने 1974 से 1994 तक एक साथ संघर्ष किया। और अब इसी गांधी मैदान से नीतिश की सत्ता डिगाने के लिये लालू यादव अपने बेटे की सियासी ताजपोशी करते दिखे।

और गांधी मैदान जो बिहार ही नहीं देश की बदलती सियासत का गवाह रहा है, उसे एक बार फिर उसे संघर्ष में सत्ता पाने का लेप लगते हुये देखना पड़ा। क्योंकि जेपी और कर्पूरी ठाकुर के दौर में नाते-शिश्तेदारों के खिलाफ राजनीतिक जमीन पर खड़े होकर संघर्ष करने की मुनादी करने वाले लालू यादव कितना बदले इसकी हवा परिवर्तन रैली में बहेगी। परिवर्तन की नयी बयार बिहार की सियासत के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अभी तक सत्ता के लिये लालू का हर संघर्ष नीतिश की सत्ता को ही मजबूत करता रहा है। और नीतिश हमेशा ठहाका लगाकर यह कहने से नहीं चूकते कि मुझे हटाकर क्या लालू की सत्ता चाहते हैं। और बिहार की जनता खामोशी से नीतिश धर्म को ही बेहतर मान चुप हो जाती है। लेकिन इस बार लालू का वार दोहरा है, जिसमें वह खुद को माइनस कर चलते दिखे और गांधी मैदान में युवा बिहार के लिये अपने बेटों के जरीये विकल्प का सवाल उठाते दिखे तो मोदी के डंक को मुस्लिमो को चुभाकर नीतिश के आरएसएस के गोद में बैठने की बात भी कह गये।

लेकिन लालू की सबसे बड़ी मुश्किल वही कांग्रेस है, जिसकी पीठ पर सवार होकर उन्होंने दिल्ली की सत्ता का स्वाद भी लिया। अब वही कांग्रेस लालू को पीठ दिखा कर नीतिश को साधने में जुटी है। और लालू के पास इसका जवाब नहीं है जबकि कभी जेपी ने गांधी मैदान में जब नारा लगाया था इंदिरा हटाओ देश बचाओ तब लालू जेपी के साथ खड़े थे। ऐसे मोड़ पर गांधी मैदान परिवर्तन की गूंज कैसे सुन पायेगा और परिवर्तन के नाम पर सिर्फ भीड भड़क्का को ही देखकर इतना ही कह पा रहा है कि लालू का मिथ टूटा नहीं है। क्योंकि भरी दोपहरी और फसल में फंसे किसान-मजदूरों के बीच भी रैली हो गई। यह अलग बात है कि रैली ने यह संदेश भी दे दिया कि बिहार परिवर्तन चाहता है और उसे विकल्प की खोज है। लेकिन कोई परिवार, परिवर्तन या पद के नाम पर गांधी मैदान के जरीये बिहार को ठग नहीं सकता है।

यू पी ए २ एक सौ अस्सी करोड़ खर्च करके एक सौ बीस करोड़ लोगों को ये बताने की कोशिश करेगी की अब कितने मील और आगे जाना है .


बुधवार, 8 मई 2013

तन्हाई की महफ़िल




सजा  क्या खूब मिलती है ,  किसी   से   दिल  लगाने  की
तन्हाई  की  महफ़िल  में  आदत  हो  गयी   गाने  की 

हर  पल  याद  रहती  है , निगाहों  में  बसी  सूरत 
तमन्ना  अपनी  रहती  है  खुद  को  भूल  जाने  की 

उम्मीदों   का  काजल    जब  से  आँखों  में  लगाया  है
कोशिश    पूरी  रहती  है , पत्थर  से  प्यार  पाने  की

अरमानो  के  मेले  में  जब  ख्बाबो  के  महल   टूटे 
बारी  तब  फिर  आती  है , अपनों  को  आजमाने  की

मर्जे  इश्क  में   अक्सर हुआ करता है ऐसा भी
जीने पर हुआ करती है ख्वाहिश मौत पाने की

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 6 मई 2013

अब की बारी रेल की


पहले टू जी का खेल 
फिर खेल में खेल 
और अब 
रेल से मेल .












फिर एक घोटाला
अब की बारी 
आयी रेल की 

फिर एक घोटाला  
फिर एक बार मीडिया में शोर 
 फिर एक बार नेताओं की तू तू मैं मैं 
फिर एक बार सरकार की जाँच की बात 
फिर एक बार जाँच के बहाने  घोटाले को दबाने की साजिश  
फिर एक बार समिति का गठन 
 फिर एक बार जनहित याचिका की उम्मीद 
 फिर एक बार उच्चत्तम न्यायालय से  अपेछा
 फिर एक बार जनता का बुदबुदाना  कि  जाने दो  सब एक जैसे हैं।
किन्तु 
ऐसा कह कर 
हम अपनी जिम्मेदारी से बिमुख नहीं हो सकते  
अब समय आ गया 
कि हम सब अपनेस्तर से लोगों को 
आगाह करें कि भ्रष्टाचार करना 
जितना बड़ा जुर्म है 
उसे सहना 
और भ्रष्टाचार देखकर 
चुपचाप रहना  भी कम बड़ा जुर्म नहीं है. 



प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना  


















 

बुधवार, 1 मई 2013

ये कैसा समय










 

ये कैसी ईमानदारी 
जिसके नेत्रत्ब में करोड़ों का घपला हो 
ये कहाँ की सरदारी 
जब कोई दुश्मन आपके घर में आ धमके 
और आप स्थानीय समस्या बोलें 
ये कैसा बद्दपन 
कि पडोसी मुल्क आपके सैनिकों के सर काट  डालें 
और आप इसकी उपेछा करतें रहें 
ये कैसी निति कि 
कोई भी मुल्क आपकी बातों को गम्भीरता से ना लें 
और जब मौका मिले पलट जाये .
ये कैसी सुरछा 
कि 
देश की गुड़िया और बेटियां अपने को खतरें में महसूस करें 
और 
करोड़ों भुखमरी के शिकार बाले देश में 
चन्द लोगों के रहने के लिए  अरबों फुकनें बालें अम्बानी 
की सुरछा के लिए 
सरकार नियमों में परिबर्तन के लिए 
ब्याकुल लगे .
ये कैसा नशा कि 
पानी की एक एक बूंद को तरसने को मजबूर 
लोगों को उनकी दशा पर छोड़ कर 
सस्ते पानी के टैंकर  देकर 
हरे भरे मैदान में 
क्रिकेट का मजा राजनेता लें .
ये कैसा समय 
राम जाने ....... 



प्रस्तुति 
मदन मोहन सक्सेना