शुक्रवार, 22 मई 2015

उम्मीद के इंतज़ार में एक बर्ष (मोदी सरकार)


उम्मीद के इंतज़ार में एक बर्ष (मोदी सरकार)

समय कैसे जाता है ये उससे अधिक और कौन जानता होगा जो उम्मीदों के सहारे अपनी जिंदगी ढो  रहा हो। आम जनता ने जिस उम्मीद से मोदी सरकार को सत्ता सौफी थी , कहना मुश्किल  है कितनी उम्मीदों पर ये सरकार खरी उतरी है।  बर्ष के बारह महीनो में दो महीने प्रधान मंत्री मोदी जी बिदेश में रहे है ,करीब बीस देशों की यात्रा की है , सैकड़ों समझौते किये हैं , ट्विटर पर उनके फॉलोवर की संख्या दिन दूनी रात चौगनी की गति से बढ़  रही है , मंगोलिया को एक अरब डॉलर की सहायता दी है ,नेपाल में मदद देने के मामले में बिदेशों से भी प्रंशशा पाई है , यमन से अपने ही नहीं बिदेशी नागरिको को भी सफलता पूर्बक  निकाला  है , लेकिन लाख टके का एक सवाल इससे भारत की आम जनता को क्या मिला।
जनता ने मोदी को पांच साल के लिए प्रधानमंत्री चुना है इसलिए उनसे पूरा हिसाब-किताब आज ही मांगना उचित और तर्कसंगत नहीं है। आज अगर किसी बात का आकलन किया जा सकता है, तो वह है इस सरकार की दिशा, उसके द्वारा बनाई गई नीतियों से मिलने वाले संकेत और सरकार की नीयत के सबूत। दूसरी बात ये कि आजादी के बाद पहली बार दिल्ली में सरकार ही नहीं बदली बल्कि एक पूर्ण सत्ता परिवर्तन हुआ है, इसलिए पुराने मानकों और कसौटियों पर ही अगर आप इस एक साल को तौलेंगे तो शायद आप उतने सही न हों। वैसे इस सरकार ने एक साल में देश को अकर्मण्यता, निराशावाद और लचर प्रशासन के माहौल से बाहर तो निकाला है और इससे इसका बड़े से बड़ा आलोचक भी इनकार नहीं कर सकता।
सत्ता में सरकार के भी एक बरस पूरे होने को है। इस बीच देश में काफी कुछ गुजर गया है। मोदी दुनिया का सफर कर चुके हैं, उनकी पार्टी गठबंधन के रास्ते जम्मू और कश्मीर में सरकार का हिस्सा बन गई। दूसरे चुनावों में भी पार्टी को ठीक ठाक सफलता हाथ लगी लेकिन दिल्ली में BJP को आम आदमी पार्टी के हाथों करारी शिकस्त मिली।लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के बावजूद सरकार राज्य सभा में विपक्ष के सामने संघर्ष करती हुई दिख रही है। ऊपरी सदन में सरकार के पास नंबर कम हैं और इसका मतलब हुआ कि कई महत्वपूर्ण विधेयक यहां फंसे हुए हैं।सरकार के लिए यह एक गंभीर स्थिति बन गई है। यह छुपी बात नहीं है कि सरकार जो चीजें हासिल करना चाहती थी, उनमें बहुत सारी बातें अटकी रह गई हैं क्योंकि कई विधेयक कानून में तब्दील नहीं हो पा रहे हैं। इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि लोकसभा में हाशिये पर खड़ा विपक्ष सुर्खियां बटोरने के मामले में बढ़त की स्थिति में दिखता है।
अगर आप सरकार के बिजली मंत्री की सुनें तो हालात पहले से बेहतर लगते हैं।हालांकि राज्य बिजली बोर्डों की खस्ताहालत भी एक अलग हकीकत है और केंद्रीय बिजली मंत्री का उन पर कोई बस नहीं है। इसके बावजूद उनके मंत्रालय के कामकाज को लेकर इंडस्ट्री की राय पॉजिटिव ही रही है। इस लिहाज से बिजली के क्षेत्र में सरकार का कामकाज तकरीबन ठीक कहा जा सकता है।
सड़क मंत्रालय के के खाते में महाराष्ट्र के सड़क मंत्री की हैसियत से बुनियादी ढांचे के मोर्चे पर उम्दा परफॉर्मेंस की उपलब्धियां जुड़ी हुई हैं। गडकरी के होने से देश में सड़कों की स्थिति और बेहतर होनी चाहिए थी।
हालांकि गडकरी ने दावा किया कि UPA के दौर में हर रोज 2 किलोमीटर सड़क बनने की रफ्तार की तुलना में अधिक तेजी से काम हो रहा है।उनके मुताबिक देश में रोजाना 12-14 किलोमीटर सड़क बन रही है और अगले 2 साल में यह रफ्तार बढ़कर 30 किलोमीटर रोजाना के करीब पहुंच सकती है। लेकिन हकीकत यह है कि इस लक्ष्य के रास्ते में भूमि अधिग्रहण बिल का अटका होना भी एक बाधा है।और यह एक सच है कि बुनियादी ढांचे के विस्तार की किसी परियोजना के लिए जमीन की जरूरत होती है। वह चाहे सड़क हो या एयरपोर्ट या कुछ और। इस मोर्चे पर सरकार यकीनन नाकाम रही कि उसने इसे गरीब बनाम अमीर की बहस में तब्दील हो जाने दिया।सरकार पर यह तोहमत कि वह अमीरों के लिए काम कर रही है, कम से कम अभी के लिए तो असर कर रही है। इन हालात में देखें तो बुनियादी ढांचे के मोर्चे पर भी सरकार का कामकाज अच्छा कहा जा सकता है।
आम मान्यता है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार कम हुआ है और कारोबार जगत भी यह मानता है। लेकिन भले ही इस करप्शन में कमी आई हो पर आम आदमी को सीधे परेशान करना वाला छोटा-मोटा भ्रष्टाचार जारी है, चाहे वह पुलिस हो या फिर कोई सरकारी एजेंसी या कोई और। इसी वजह से लोगों को यह लगा कि अरविंद केजरीवाल शायद उनकी मदद कर पाएं और दिल्ली में आम आदमी पार्टी को ऐतिहासिक जनादेश मिला।यहां तक कि प्रधानमंत्री से जुड़ी उन खबरों को भी सकारात्मक तरीके से लिया गया जिनमें कहा गया कि वह अपने मंत्रियों की मीटिंग्स पर नजर रखते हैं, मंत्रियों को साफ निर्देश देते हैं कि कारोबारियों से दूरी बनाकर रहें और आधिकारिक चैनलों के अलावा किसी ओर रूट से उनसे न मिलें।
स्वच्छ भारत, सब के लिए शौचालय और बैंकों तक सभी की पहुंच , यह उम्मीद की जा सकती है कि इन योजनाओं को जिन्हें लागू करना है, वे भी प्रधानमंत्री की तरह ही प्रतिबद्ध हैं।और इन सबसे ऊपर आम आदमी यह समझ पा रहा है कि इन योजनाओं में उनके लिए क्या है। हालांकि अभी भी लंबा सफर तय करने के लिए बाकी हैं लेकिन इसे अच्छी शुरुआत कहा जा सकता है। इस मोर्चे पर सरकार का कामकाज अच्छे से बेहतर कहा जाता है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार करने के लिए स्वच्छ भारत मिशन और ऐसी योजनाओं को लंबा रास्ता तय करना है।इनके अलावा महंगी प्राइवेट मेडिकल सुविधाओं पर बढ़ती निर्भरता एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सरकार को विचार करने की जरूरत है। आम तौर पर यह राय बनती दिख रही है कि मेडिकल सुविधाएं आम लोगों की पहुंच से बाहर जा रही हैं। जो मेडिकल सुविधा आम आदमी की पहुंच के दायरे में है, उसकी गुणवत्ता को लेकर सवाल खड़े होते रहते हैं। इसलिए इस मोर्चे पर सरकार का कामकाज औसत ही कहा जा सकता है।जहां तक शिक्षा का सवाल है, यह देश की तरक्की के लिए महत्वपूर्ण है। एजुकेशन के मसले पर मानव संसाधन विकास मंत्री अपने वास्तविक कामकाज की तुलना में विवादों की वजह से अधिक सुर्खियों में रहीं। यह सच है कि कई बार मंत्री को बेजा निशाना बनाया गया लेकिन सरकार इस मसले से निपट सकती थी।और अगर उन्हें मंत्री बनाए जाने से कुछ हासिल होना था तो इसके बारे में बताया जाना चाहिए था और जरूरी कदम उठाने जाने चाहिए थे या फिर किसी और को जिम्मेदारी दी जा सकती थी। इसलिए एजुकेशन के मोर्चे पर सरकार का परफॉर्मेंस कामचलाऊ ही कहा जा सकता है।भाषणों और मंगलायन अभियान की जबर्दस्त कामयाबी के अलावा इस मसले पर ज्यादा कुछ लिखने की गुंजाइश नहीं है।
हालांकि इस बात के कई उदाहरण मिल जाते हैं कि सरकार के कई मंत्री किसी VIP की तुलना में अधिक सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री के कुनबे में लफ्फाजों की भी कमी नहीं है।इसी साल अप्रैल में नागरिक उड्डयन मंत्री ने कहा कि वह उड़ान के दौरान प्रतिबंधित चीजें साथ रखते हैं और मंत्री होने की वजह से उनकी तलाशी नहीं ली जाती है। पहले तो गलती करें फिर इस पर शेखी बघारें?प्रधानमंत्री को उनकी सार्वजनिक तौर पर निंदा करना चाहिए थी। हालांकि पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ऐसा हुआ हो। और फिर इसी हफ्ते केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव ने दल-बदल के साथ एयरपोर्ट के एक्जिट गेट से भीतर जाने की कोशिश की।और अगर प्रधानमंत्री चाहते हैं कि उनके मंत्री आम आदमी की तरह बर्ताव करें, वास्तव में उनके सेवकों की तरह पेश आएं, रामकृपाल यादव ने जो किया, उसकी निंदा की जानी चाहिए। उम्मीद है कि मोदी इसकी खबर लेंगे।हालांकि सरकार में ऐसे मंत्री भी हैं जो सभी नियमों का पालन करते हैं, कैटल क्लास में सफर करते हैं और यहां तक कि निजी यात्राओं में अपना बिल खुद भरते हैं। इस मोर्चे पर सरकार के कामकाज को औसत से अच्छा कहा जा सकता है।
साम्प्रदियक सदभाब के  क्षेत्र में प्रधानमंत्री की ओर से बार-बार दिए गए आश्वासनों के बावजूद छवि गढ़ने की सरकार की राजनीति कमजोर रही है।  तोड़-फोड़ की हरेक घटना को सांप्रदायिक करार देने में राजनीतिक पार्टियों और यहां तक कि मीडिया की भी गलती थी।कुछ मंत्रियों और पार्टी नेताओं की बयानबाजी ने इस मसले पर ज्यादा मदद नहीं की। ईमानदारी से कहा जाए तो इस क्षेत्र में मोदी पर किसी और की तुलना में सबसे अधिक नजर रखी जा रही है और उन्हें ऐसे लोगों पर शासन करने में कड़ी मेहनत करनी होगी जितना उन्होंने अभी तक नहीं किया होगा।
हालांकि मोदी के आने के बाद देश में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ है लेकिन लोगों की राय न बदल पाने की नाकामी की वजह से सरकार को इस क्षेत्र में औसत से ज्यादा की रेटिंग नहीं दी जा सकती है।
नदियों की स्थिति के बारे में बातें बहुत की गई हैं लेकिन जमीन पर दिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। वाराणसी इसका अपवाद है जहां घाटों की स्थिति में सुधार हुआ है। कहते हैं कि बनारस के घाट इतने साफ सुथरे कभी नहीं थे। हालांकि हमारी नदियां घाटों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं और यह केवल एक शहर की बात नहीं है।वैसे इसमें वक्त लगेगा और सरकार इसे लेकर गंभीर दिखती है। प्रधानमंत्री और उनकी टीम को दिखाना है कि वे यहां प्रशासन करने के लिए हैं न कि हुकूमत करने के लिए।
सौभाग्य से प्रधानमंत्री की यह छवि बरकरार है कि वह प्रशासन के मोर्चे पर अच्छा कर रहे हैं। लेकिन उन्हें इस छवि को बरकरार रखने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी। एक हद के बाद लोग छवियों आगे जाकर जमीन पर नतीजों की तलाश करेंगे। अगर बगैर किसी चश्मे के देखा जाए तो विदेश नीति, अर्थव्यवस्था की मोटी-मोटी स्थिति, महंगाई, विकास की दर, भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उठाए गए कदम, प्रशासनिक मुस्तैदी और देश में एक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए मोदी सरकार ने बेहतरीन काम किया है। साथ ही कुछ नए संकल्पों, जैसे स्वच्छ भारत, जनधन योजना और जनसाधारण के लिए शुरू की गई प्रधानमंत्री बीमा योजनाओं के लिए मोदी सरकार की कल्पनाशीलता की सराहना की जानी चाहिए।मगर कुछ मोर्चों पर मोदी सरकार की गति धीमी रही है। इस देश को नौकरियां चाहिए। इसके लिए जरूरी है, देश के मझोले और लघु उद्योगों में नई जान फूंकना। अगर उद्योग नहीं बढ़ेंगे तो हमारी युवा पीढ़ी का क्या होगा? देश के किसी भी औद्योगिक शहर में चले जाइए छोटे से बड़ा कारखानेदार हैरान और परेशान ही मिलेगा। इस दिशा में जिस गति से फैसले होने चाहिए वैसा अभी दिखता नहीं है। सरकार भूमि अधिग्रहण का अध्यादेश लाई मगर फिर इसपर रक्षात्मक क्यों हो गई? बढ़ती हुई जनसंख्या और उसकी जरूरतों के लिए शहरीकरण और औद्योगीकरण आवश्यकता ही नहीं, बल्कि देश की अनिवार्यता है। लंबे समय बाद पूर्ण बहुमत से आई केंद्र सरकार अपने इस कर्तव्य से इसलिए नहीं डिग सकती क्योंकि कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं।



टैक्स कानून लागू करने की तरफ भी सरकार शायद इनकम टैक्स महकमे के बाबुओं के दबाव में आ गई, नहीं तो कोई कैसे रिटर्न भरने के लिए इतने जटिल फॉर्म की कल्पना भी कर सकता है, जो इनकम टैक्स विभाग ने प्रस्तावित किया था?  केंद्रीय वित्त मंत्री  के सीधे दखल का कि विभाग अब एक नया फॉर्म बना रहा है।वैसे एक बात स्पष्ट कर देना ठीक रहेगा कि जनता ने मोदी को पांच साल के लिए प्रधानमंत्री चुना है इसलिए उनसे पूरा हिसाब-किताब आज ही मांगना उचित और तर्कसंगत नहीं है। आज अगर किसी बात का आकलन किया जा सकता है, तो वह है इस सरकार की दिशा, उसके द्वारा बनाई गई नीतियों से मिलने वाले संकेत और सरकार की नीयत के सबूत। दूसरी बात ये कि आजादी के बाद पहली बार दिल्ली में सरकार ही नहीं बदली बल्कि एक पूर्ण सत्ता परिवर्तन हुआ है, इसलिए पुराने मानकों और कसौटियों पर ही अगर आप इस एक साल को तौलेंगे तो शायद आप उतने सही न हों।वैसे इस सरकार ने एक साल में देश को अकर्मण्यता, निराशावाद और लचर प्रशासन के माहौल से बाहर तो निकाला है और इससे इसका बड़े से बड़ा आलोचक भी इनकार नहीं कर सकता।आमतौर से भाजपा और संघ के समर्थक माने जाने वाले कई लोग भी आजकल पीड़ा के दौर से गुजर रहे हैं। उन्हें लगता है कि सरकार आने पर उन्हें कुछ नहीं मिला। इनमें से कई को उम्मीद थी कि नए निजाम में ये नए पैरोकार हो जाएंगे, मगर ऐसा अभी तक नहीं हुआ है सो इनकी बेचैनी काफी बढ़ गई है। इनमें से ज्यादातर आपको कहते मिल जाएंगे 'ये सरकार तो कुछ कर ही नहीं रही।' या फिर 'ये तो वैसी ही सरकार है। इसमें नया कुछ नहीं है।' सरकार का सबसे बड़ा आलोचक यही बेचैन वर्ग है।मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि सत्ता के गलियारों से  ये बिचौलिए अब गायब हो गए हैं। शायद ये सबसे मुश्किल काम भी था। अब इन लोगों की सुनी जाए तो इस सरकार ने कुछ नहीं किया। ये मोदी के कुछ चुनावी जुमलों जैसे 'अच्छे दिन' वगैरह को अपने लेखों और टेलीविजन चर्चाओं में रबड़ की तरह खींचते हुए मिल जाएंगे।मगर सवाल है कि तो फिर असलियत क्या है? क्या पिछले साल में सब कुछ हरा-हरा ही रहा है? क्या मोदी ने चुनावी माहौल में जनमानस में अपेक्षाओं का जो ज्वार पैदा किया था,  उस पर वे खरे उतरे हैं?  सवाल कई हैं? और असलियत कहीं बीच में है।जमीनी स्तर पर कोई भी प्रभावी कार्य नहीं हो पाया है। । छह विपक्षी पार्टियों का विलय कराकर उन्हें 'जनता परिवार' के बैनर तले एकजुट कराने वालों में से एक जद-यू नेता ने कहा कि सरकार ने दो करोड़ अतिरिक्त रोजगार सृजन, प्रत्येक बेघर को घर और हर खेत को पानी देने का वादा किया था। लेकिन इनमें से कोई भी वादा पूरा नहीं किया गया।
उन्होंने कहा कि सरकार को केवल इरादे न जताकर गरीबी दूर करने, रोजगार सृजन और संकट में फंसे किसानों व गरीब व्यक्तियों की मदद के लिए एक स्पष्ट रोडमैप के साथ आना चाहिए और अपनी नीतियों को विस्तार से पेश करना चाहिए। मोदी के विदेश दौरों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि मोदी हर वक्त विदेश यात्राओं में लीन हैं, लेकिन आज की तारीख में उन देशों से एक भी बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का प्रस्ताव नहीं आया, जिन देशों का उन्होंने दौरा किया। शरद ने कहा कि उन्होंने अपने दौरों से विदेश भ्रमण संबंधी व ऐतिहासिक स्थलों के बारे में भारतीय मतदाताओं का सामान्य ज्ञान बढ़ाने के सिवाय किया ही क्या है।काले धन और लैंड बिल को लेकर कांग्रेस ने मोदी सरकार को हर कदम पर घेरा है। किसानों की आत्महत्या का मुद्दा राहुल गांधी ने जोर शोर से उठाया। अब फूड पार्क पर भी राहुल सरकार को घेर रहे हैं। प्रेस कांफ्रेंस कर कांग्रेस देश भर में संदेश देना चाहती है कि मोदी सरकार के 1 साल में अभी तक अच्छे दिन नहीं आए हैं। किसान परेशान हैं और आत्महत्या कर रहे हैं पर सरकार इनकी सुध नहीं ले रही है। देश की सड़कों पर सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के इश्तेहार गए और सेल्फी की शक्ल में लाखों तस्वीरें सोशल नेटवर्किंग साइट्स की नुमाइश होने लगी। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस अभियान के लिए कई बड़ी हस्तियों को नॉमिनेट भी किया। नतीजा, झाड़ू के साथ ऐसी तस्वीरें फैशन बन गईं, और स्वच्छ भारत मिशन देश की सबसे बड़ी जरूरत। सरकार का वादा था कि गांधी जी की 150वीं जयंती यानी 2019 तक देश को स्वच्छ बनाया जाएगा। 2015 तक 2 करोड़ शौचालय बनवाए जाएंगे। 2019 तक देश के 4041 शहरों में ठोस कचरा प्रबंधन का इंतजाम होगा और 2022 तक देश में खुले में शौच की समस्या पूरी तरह खत्म हो जाएगी।इस अभियान के ऐलान होते ही देश का हर शहर शंघाई बनने का सपना सजाने लगा। लेकिन अभियान के करीब एक साल बाद वो सपना थोड़ा धुंधला नजर आ रहा है। अफसोस कि दिल्ली की जिस गली से इस मिशन की शुरुआत हुई थी वही गली आज मिशन की हकीकत पेश कर रही है। वैसे ये भी सोचने की बात है कि जिस दिल्ली से स्वच्छ भारत का मिशन शुरु हुआ, जिस हिन्दुस्तान को 2019 तक साफ-सुथरा बनाने की कसम खाई गई वही दिल्ली इस साल दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर घोषित हुई। यही नहीं दुनिया के 10 सबसे प्रदूषित शहरों में छह शहर भारत के ही थे।
इस बात कोई शक नहीं कि स्वच्छ भारत मिशन देश की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन एक सच ये भी है, कि इस मिशन की कामयाबी के लिए जिस खर्च की जरूरत है, वो फिलहाल मुमकिन नहीं दिखता।हालांकि पैसा जुटाने के लिए सरकार ने कई बड़ी पहल भी की हैं और सीएसआर के जरिए मिशन में कॉरपोरेट की भागीदारी के लिए भी सरकार ने नए रास्ते खोले हैं।
मोदी सरकार की ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ योजना के लिए 100 करोड़ रुपए आवंटित किए थे। जाहिर है एक साल में इस योजना का नतीजा तलाशना मुश्किल है। लेकिन सवाल ये भी है कि क्या 100 करोड़ में ये सबकुछ हो जाएगा।
आजाद हिंदुस्तान में यूं तो भ्रूण हत्या और कन्या शिक्षा पर कई योजनाएं शुरू हुईं। सैकड़ों करोड़ का बजट भी पास हुआ। लेकिन न हालात बदले न हकीकत बदली, मगर मोदी सरकार ने देश की सबसे बड़ी चुनौती के लिए एक बहुत बड़ी योजना का ऐलान किया।
ये योजना देश के 100 जिलों में एक साथ शुरू की गई। योजना के तहत भ्रूण हत्या रोकने के लिए अभियान की शुरुआत की गई। बेटियों की स्कूली शिक्षा के लिए जागरुकता मिशन चलाया गया। 10 साल तक की बेटियों के लिए सुकन्या समृद्धि योजना की शुरुआत की गई। इस योजना के लिए 100 करोड़ रुपए का प्रावधान भी रखा गया।
इस बड़ी योजना के लिए मोदी सरकार ने हरियाणा की जमीन चुना और अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को इस योजना का ब्रांड एम्बेसडर भी बनाया। अब सवाल ये उठता है कि आखिर इस योजना की जरूरत क्यों पड़ी, क्यों मोदी सरकार ने इस योजना की मिशन की तरह पेश किया। वजह है देश में लगातार घटता लिंगानुपात, 1991 की जनगणना के मुताबिक देश में 1000 लड़कों के मुकाबले सिर्फ लड़कियों का आंकड़ा 945 था। जो 2001 की रिपोर्ट में 927 तक पहुंचा और 2011 तक ये आंकड़ा 918 तक पहुंचा था।एक आंकड़ों को मजबूत बनाने के लिए मोदी सरकार ने कई बड़े जागरुकता अभियान को हरी झंडी दिखाई। फिल्मों, विज्ञापनों और इश्तेहारों के जरिए लोगों को बेटियों की अहमियत समझाई और अगले एक साल में लिंगानुपात के आंकड़े को 10 अंक ऊपर लाने का लक्ष्य तय हुआ।रही बात लड़कियों की शिक्षा की, तो यहां भी आंकड़े सरकार के लिए परेशान करने वाले थे। 2013 के आंकड़ों के मुताबिक दसवीं क्लास तक लड़कियों की साक्षरता दर सिर्फ 76 फीसदी थी। लेकिन मोदी सरकार एक साल में इसे 79 फीसदी लाना चाहती है।
सरकार और जनता के बीच संवाद जरूरी है। इसी जरूरत को देखते हुए मोदी सरकार ने भी एक नया कार्यक्रम शुरु किया। जिसका नाम है, मन की बात। मोदी के मन की बात, जनता के दिल तक कितनी पहुंची, ये बहुत बड़ा सवाल है। लेकिन एक अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक एक दिलचस्प आंकड़ा सामने आता है। वो ये कि इस कार्यक्रम से ऑल इंडिया रेडियो के अच्छे दिन आ चुके हैं क्योंकि सरकार ने इस कार्यक्रम के विज्ञापन के लिए ऑल इंडिया रेडियो को प्रति 10 सेकेंड के करीब दो लाख रुपए का भुगतान कर रही है। जबकि आमतौर पर ये रेट 500 से 1500 के बीच है।
कहते हैं रेडियो के जरिए जनता से संवाद का ये सिलसिला 1933 में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट ने शुरू किया था। लेकिन हिंदुस्तान में संवाद का ये सिलसिला पहली बार शुरू हुआ। 3 अक्टूबर 2014 को पहली बार प्रधानमंत्री ने मन की बात के जरिए लोगों से सीधा संवाद किया। इस पहल के कई मकसद थे। पहला ये कि प्रधानमंत्री लोगों तक सीधे अपनी बात पहुंचा सकें। सरकार की नीतियां जनता के बीच पहुंच सकें। जनता को सरकार की योजनाओं की जानकारी मिले और मुश्किल वक्त में प्रधानमंत्री लोगों की हिम्मत बढ़ा सकें।
मन की बात कार्यक्रम ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। इसके लिए भी सरकार ने कई पहल शुरू की। मन की बात कार्यक्रम को स्कूली बच्चों तक पहुंचाया गया। सार्वजनिक स्थानों पर कार्यक्रम आयोजित हुए।
अब तक प्रधानमंत्री 6 बार मन की बात के जरिए जनता के बीच अपनी आवाज पहुंचा चुके हैं। पहला कार्यक्रम 3 अक्टूबर 2014 को प्रासारित हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत मिशन, खादी कपड़े और देश में कामयाब मंगल मिशन पर बात हुई। 2 नवंबर 2014 को प्रधानमंत्री ने साक्षरता मिशन, स्वच्छ भारत अभियान, और भारतीय सेना के जवानों पर बात की। 14 दिसंबर 2014 को प्रधानमंत्री नशा मुक्ति के संदेश के साथ जनता के बीच पहुंचे। 27 जनवरी 2015 को प्रधानमंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ दोनों देशों के रिश्तों पर बात की। 22 फरवरी 2015 को परीक्षा से पहले छात्रों को बड़ा पैगाम देने सामने आए। तो 22 मार्च 2015 को किसानों के मुद्दे और भूमि बिल पर संदेश देते सुनाई दिए।अब सवाल ये है कि आखिर मन की बात कार्यक्रम कितने लोगों तक पहुंचा। सरकारी आंकड़े की मानें तो मन की बात का पहला कार्यक्रम देश की 90 फीसदी जनता तक पहुंचाया गया। देश के छह बड़े शहरों में हुए सर्वे के मुताबिक करीब 66.7 फीसदी लोगों ने मोदी का कार्यक्रम सुना था।
पिछले एक साल में मोदी सरकार का एक और बड़ा फैसला था योजना आयोग की जगह नीति आयोग का गठन। एक साल में इस फैसला का नतीजा नहीं निकाला जा सकता। लेकिन एक सवाल जेहन में भी आता है कि आखिर इस फैसले की जरूरत क्यों पड़ी और क्या योजना आयोग के नीति आयोग बन जाने से बदलाव आ जाएगा। अब सवाल ये उठता है कि आखिर ये फैसला क्यों लिया गया, योजना आयोग के वजूद पर सवाल इसलिए उठे, क्योंकि एक राज्य का कामयाब मॉडल दूसरे राज्य में लागू नहीं हो पाता था। सरकार के मुताबिक योजना आयोग ने आम आदमी के टैक्स का पैसा बचाने के ठोस कदम नहीं उठाए क्योंकि योजना आयोग में राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व नहीं मिला। ये भी कहा गया कि योजना आयोग परियोजनाओं में देरी को नहीं रोक पाया। मोदी सरकार के नीति आयोग की पहली बैठक के साथ ही एक नई तस्वीर देश के सामने आई। जबकि बैठक को टीम इंडिया का नाम दिया गया।
ये सवाल आपके जेहन में भी होगा कि आखिर योजना आयोग और नीति आयोग में फर्क क्या है। पंडित नेहरु का योजना आयोग पूरी तरह केंद्र के हाथों में था। लेकिन नीति आयोग में सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर राज्य सरकारों की भी भागीदारी शुरू की गई। योजना आयोग देश में विकास से संबंधित योजनाएं बनाता था। जबकि नीति आयोग में ग्राम इकाईयों से आने वाली सलाहों को भी शामिल किया गया है। योजना आयोग के अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री थे, लेकिन उनमें मुख्यमंत्रियों की कोई भूमिका नहीं थी, वहीं नीति आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं लेकिन यहां मुख्यमंत्रियों की भी भागीदारी है। योजना आयोग में निजी क्षेत्रों की कोई हिस्सेदारी नहीं थी, जबकि नीति आयोग में निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की भी बड़ी भूमिका है।साफ और सीधे लफ्जों में समझें तो नीति आयोग सरकार को विकास से संबंधित योजनाओं पर सलाह देगी। जिसमें राज्य सरकारों के साथ साथ निजी क्षेत्रों की भी भूमिका होगी। यानी नीति आयोग का पहला मकसद केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल है। तर्कों के आधार पर तो मोदी सरकार का ये फैसला सटीक दिखाई देता है। लेकिन ये आयोग देश के विकास में कितनी हिस्सेदारी निभा पाता है। ये वक्त ही बताएगा.

मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 18 मई 2015

अरूणा शानबाग ( कोमा में सम्बेदना )





अरूणा शानबाग
केईएम अस्पताल में जूनियर नर्स के तौर पर काम करती थी
27 नवंबर 1973 को वार्ड ब्वॉय ने अरूणा पर यौन हमला किया
और कुत्ते के गले में बांधने वाली चेन से 
अरूणा का गला घोंटने की कोशिश की 
जिससे अरूणा के मस्तिष्क में ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित हो गई
 हमले के बाद से अरूणा निष्क्रिय अवस्था में आ गई.
अरूणा
ने आज मुंबई में अंतिम साँस ली
अरुणा ही नहीं
 बल्कि हमारी संवेदना 42 साल कोमा में रही
पिछले 42 वर्षों से हमारे समाज के सामने वह एक सवाल के रूप में थी.
वह जिस पीड़ा से गुजरी
उसे बयां तो कभी नहीं कर पाई
लेकिन उसके आसपास मौजूद लोगों ने खूब महसूस किया और कसमसाए
दर्द दूर करने के लिए
कोर्ट से मदद मांगी गई, लेकिन राहत नहीं मिली
और अरुणा की पीड़ा से मुंह मोड़े
हमारा सिस्टम भी वहीं कोमा में पड़ा रहा
आज फिर बही सबाल
उत्तर  खोज रहे है
कि 
जब हमला करने बाला सात साल की सजा पूरी कर
बाहर की दुनिया में जी रहा है
तो फिर पीड़ित किस की सजा भुगत रही है
आज भी हमारा  सिस्टम
ऐसी घटनाओं से सबक क्यों नहीं लेता
और कोमा में पड़ा रहता है।





सोमवार, 11 मई 2015

जुर्म सज़ा और जमानत ( इक कड़बी सच्चाई )

जुर्म सज़ा और जमानत ( इक कड़बी सच्चाई )


सलमान के हिट एंड रन केस का
फैसला  क्या आया
मीडिया  का असली चेहरा सामने आ गया
ये बात भी सबको क्लियर हो गयी
देश का कानून आपकी औकात देखकर बात करता है
फ़िल्मी सितारों की नजर में
आदमी की जिंदगी और गरीबी की क्या कीमत है
आज भी हमारे देश में दो तरह के कानून हैं-
एक अमीरों के लिए और दूसरे गरीबों के लिए।
हमारी अदालतों का रवैया भी अमीरों और गरीबों के लिए अलग-अलग दो तरह का है।
कौन करेगा न्यायपालिका का ईलाज? कौन न्याय-प्रणाली को कमजोर और गरीबपरस्त बनाएगा।
इसी तरह  वॉलीबुड अभिनेता सलमान खान को
सजा मिलने के चंद घंटों के भीतर ही
हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार करके,सुनवाई करके जमानत दे दी।
सजा मिलने में जहाँ 13 साल लग गए
वहीं जमानत मिलने में 13 घंटे भी नहीं लगे।
सवाल उठता है कि देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में
जो 11 लाख मुकदमे लंबित हैं उनपर भी इसी तरह तात्कालिकता क्यों नहीं दिखाई जाती?
क्यों एक आम आदमी को दशकों तक कहा जाता है
कि अभी आपके मुकदमें का नंबर नहीं आया है
और किसी रसूखदार  लालू,माया,तीस्ता या सलमान के मामले की सुनवाई
तमाम लाइनों को तोड़कर तत्काल कर ली जाती है?
सवाल उठता है कि ऐसा कब तक चलेगा?
कब तक पुलिस,सीबीआई,कानून और अदालतें चांदी के सिक्कों की खनखनाहट पर थिरकते रहेंगे?
कब और कैसे कानून और अदालतें गरीबपरस्त होंगे?
शायद कभी नहीं!!!
दिन भर हाई प्रोफाइल ड्रामा
समाचार चैनलो के पास कुछ बचा नही
लगे सुबह से दिखाने
माँ रो रही
बहन की आखे नम
पूरा देश रो रहा है
हद होती है स्वार्थ और कर्तब्य बिमुखता की
आज से 13 साल पहले फुटपाथ में सोये शख्श ( नुरुल्ला शरीफ)  की मौत हुई
किसी भी समाचार पत्र और चैनल नें शायद ही पीड़ित का नाम भी लिया हो
या फिर  परिबार को दिखाया हो
उनके परिवार को ढूंढ कर उनकी व्यथा भी भी दिखा देते
तो शायद पत्रकारिता की सही समझ आम लोगो को भी हो पाती
शराब पीकर ,अंधाधुंध फुटपाथ पर सोये गरीबो को कुचला एक की मौत और 4 बुरी तरह घायल
ये खबर सही मायने में १३ साल बाद भी सही अपना सही अर्थ पाती
अब  न्याय मिला तो वो भी 13 साल बाद
उसमे भी वी आई पी ट्रीटमेंट
साधारणतया न्यायपालिका फैसले के तुरन्त बाद
निर्णय की कॉपी नही देती
दो तीन  दिन लग जाते हैं  कॉपी हासिल करने में
लगता है जैसे  सब तय था
सेशन कोर्ट से निर्णय की कॉपी भी मिल गई
हाईकोर्ट में अर्जी भी लग गई और दो दिन की अंतरिम जमानत भी
13 साल की क़ानूनी लड़ाई के बाद 5 साल की सजा मुकर्र
अंतरिम जमानत फिर  2 दिनों बाद पूरी जमानत
फिर हाई कोर्ट में कितना  लम्बा केस चलेगा ,कहना मुश्किल है
परिणाम क्या आएगा बताने की आवश्यकता नही
लेकिन क्या कभी  मिडिया ने देखा है
देश भर के जेलो में लाखों  ऐसे लोग बन्द है
जो महज कुछ रुपयो का जुरमाना अदा कर छूट सकते है
अब गुनाह तो गुनाह है बॉलीवुड के दबंग का हो या छोटे अपराध का
सबका अपना मत है
लेकिन मेरा अपना मानना है
कि देर से किया हुआ न्याय ,न्याय नहीं होता है।
इस  मामले मे 13 वर्ष बाद आया निर्णय
संत्रास मे बीते 13 साल किसे वापस होंगे
न पीड़ित को न पीड़ित परिवार के उन रिश्तेदारो को जिन्होंने सब कुछ भुगता है
क्योकि 60 वर्ष की आजादी के बाद भी
उन्हें छत मयस्सर नहीं हुई और
फुटपाथ पर सोने पर उन्हें मौत नसीब हुई।
क्या न्याय व्यवस्था मे प्रयोग नहीं हो सकता
यदि कुछ न्याय इस तरह होता जिसमे दोषी को पीड़ित के न सिर्फ आजीवन भरणपोषण करने का दंड मिलता
अपितु उसको आजीवन किसी भी प्रकार की गाडी चलाने पर प्रतिबंधित किया जाता।
पर ऐसा होता तो नहीं है न।
अगर  सरकारें हरेक गाँव तक  बिजली पहुंचा दें
तो दिल्ली मुम्बई में फुटपाथ पे सोने
और किसी शराबी की गाडी के नीचे दब के
कुत्ते की मौत मरने का ख़तरा झेलने वाले
लोगों की संख्या में शायद  कमी आ जायेगी ।
सरकार अगर काम करने लगे
तो कौन जाएगा दिल्ली मुम्बई और लुधियाना का नारकीय जीवन जीने
कौन हैं ये लोग जो चले आते हैं
अपना घर बार बीवी बच्चे और बूढ़े माँ बाप को छोड़ के
यहां किसी फुटपाथ पे जीने और कुत्ते की मौत मरने
क्यों चले आते हैं ?
कौन है जिम्मेवार ?
मीडिया
या फिर न्याय पालिका
या फिर कार्यपालिका
या फिर हम सब
जो हर जुल्म नियति मान  कर  सह गए
शायद
अच्छे दिन कब आएं
जब कानून की नजर में
हर भारतीय की जान की एक सी कीमत हो। ।






शुक्रवार, 1 मई 2015

बिश्व मजदूर दिवस

आज बिश्व मजदूर दिवस है आज के दिन श्रमिक बर्ग ही जो हालत है उसे देखकर मजदूर दिबस मनाने की कल्पना ही बेमानी से लगती है।  पूंजी पति और ताकतबर लोगों के द्वारा किसान ,मजदूर और गरीब लोगों के शोषण की ख़बरें आये दिन सुर्खियां बनती  रहती है।
श्रम ही पूजा है, को मानने बाले मजदुर भाईओं को समर्पित एक रचना। 





ख्बाब था मेहनत के बल पर , हम बदल डालेंगे किस्मत
ख्बाब केवल ख्बाब बनकर, अब हमारे रह गए हैं

कामचोरी, धूर्तता, चमचागिरी का अब चलन है
बेअरथ से लगने लगे है ,युग पुरुष जो कह गए हैं

दूसरों का किस तरह नुकसान हो सब सोचते है
त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए हैं

अब करा करता है शोषण ,आजकल बीरों का पौरुष
मानकर बिधि का विधान, जुल्म हम सब सह गए हैं

नाज हमको था कभी पर, आज सर झुकता शर्म से
कल तलक जो थे सुरक्षित आज सारे  ढह गए हैं



मदन मोहन सक्सेना