शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

मेरी पोस्ट (सांसों के जनाजें को तो सब ने जिंदगी जाना ) जागरण जंक्शन में प्रकाशित)



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट , 
(सांसों के जनाजें को तो सब  ने जिंदगी जाना) जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .






 http://madansbarc.jagranjunction.com/2016/07/25/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%A4%E0%A5%8B-%E0%A4%B8%E0%A4%B5-%E0%A4%A8/


देखा जब नहीं उनको और हमने गीत ना गाया
जमाना हमसे ये बोला की फागुन क्यों नहीं आया

फागुन गुम हुआ कैसे ,क्या तुमको कुछ चला मालूम
कहा हमने ज़माने से कि हमको कुछ नहीं मालूम

पाकर के जिसे दिल में ,हुए हम खुद से बेगाने
उनका पास न आना ,ये हमसे तुम जरा पुछो

बसेरा जिनकी सूरत का हमेशा आँख में रहता
उनका न नजर आना, ये हमसे तुम जरा पूछो

जीवित है तो जीने का मजा सब लोग ले सकते
जीवित रहके, मरने का मजा हमसे जरा पूछो

रोशन है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
अँधेरा दिन में दिख जाना ,ये हमसे तुम जरा पूछो

खुदा की बंदगी करके मन्नत पूरी सब करते
इबादत में सजा पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

तमन्ना सबकी रहती है जन्नत उनको मिल जाए
जन्नत रस ना आना ये हमसे तुम जरा पूछो

सांसों के जनाजें को तो सव ने जिंदगी जाना
दो पल की जिंदगी पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो

सांसों के जनाजें को तो सव ने जिंदगी जाना


मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 27 जुलाई 2016

देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए



हम आज तक खामोश हैं  और वो भी कुछ कहते नहीं
दर्द के नग्मों  में हक़ बस मेरा नजर आता है  
देकर दुआएँ  आज फिर हम पर सितम वो  कर गए
अब क़यामत में उम्मीदों का सवेरा नजर आता है
 
क्यों रोशनी के खेल में अपना आस का पँछी  जला
हमें अँधेरे में हिफाज़त का बसेरा नजर आता है
 
 इस कदर अनजान हैं  हम आज अपने हाल से
हकीकत में भी ख्वावों का घेरा नजर आता है
 
ये दीवानगी अपनी नहीं तो और  फिर क्या है मदन
हर जगह इक शख्श का मुझे  चेहरा नजर आता है


देकर दुआएँ  आज फिर हम पर सितम वो  कर गए


मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं

 



























वह हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं
जब हक़ीकत हम उनको समझाने लगते हैं 


जिस गलती पर हमको वह समझाने लगते है
वह उस गलती को फिर क्यों दोहराने लगते हैं 


दर्द आज खिंच कर मेरे पास आने लगते हैं
शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं


क्यों मुहब्बत के गज़ब अब फ़साने लगते हैं
आज जरुरत पर रिश्तें लोग बनाने लागतें हैं


दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते हैं




दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं


मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 20 जुलाई 2016

(बिलकुल तुम पर)

जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा
शहर में ठिकाना खोजा
पता नहीं आजकल
हर कोई मुझसे
आँख मिचौली का खेल क्यों खेला  करता है
जिसकी जब जरुरत होती है
गायब मिलता है
और जब जिसे नहीं होना चाहियें
जबरदस्ती कब्ज़ा जमा लेता है
कल की ही बात है
मेरी बहुत दिनों के बात उससे मुलाकात हुयी
सोचा गिले शिक्बे दूर कर लूं
पहले गाँव में तो उससे रोज का मिलना जुलना था
जबसे इधर क्या आया
या कहिये कि मुंबई जैसे महानगर की
दीबारों के बीच आकर फँस गया
पूछा
क्या बात है
आजकल आती नहीं हो इधर।
पहले तो आंगन भर-भर आती थी।
दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा।
पड़ोसियों ने अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की
तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी।
अक्सर सुबह देखता हूं
पड़ी रहती हो
आजकल उनके छज्जों पर
हमारी छत तो अब तुम्हें सुहाती ही नहीं ना
लेकिन याद रखो
ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग
बड़ी सादगी से लूटते हैं
फिर चाहे वो इज्जत हो या दौलत।
महीनों के  बाद मिली हो
इसलिए सारी शिकायतें सुना डाली
उसने कुछ बोला नहीं
बस हवा में खुशबु घोल कर
खिड़की के पीछे चली गई
सोचा कि उसे पकड़कर आगोश में भर लूँ
धत्त तेरी की
फिर गायब
ये महानगर की धूप भी न
बिलकुल तुम पर गई है
हमेशा आँख मिचौली का खेल खेल करती है
और मैं न जाने क्या क्या सोचने लग गया
उसके बारे में
महानगर के बारे में
और
जिंदगी के बारे में





(बिलकुल तुम पर)
 


मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है


पैसोँ की ललक देखो दिन कैसे दिखाती है
उधर माँ बाप तन्हा हैं इधर बेटा अकेला है


रुपये पैसोँ की कीमत को वह ही जान सकता है
बचपन में गरीवी का जिसने दंश झेला है


अपने थे ,समय भी था ,समय वह और था यारों
समय पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला है 


हर इन्सां की दुनियाँ में इक जैसी कहानी है
तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है 


समय अच्छा बुरा होता ,नहीं हैं दोष इंसान का
बहुत मुश्किल है ये कहना किसने खेल खेला है 


जियो ऐसे कि हर इक पल ,मानो आख़िरी पल है
आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है



(आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है)
 

मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में

एक जमीं बख्शी  थी कुदरत ने हमको यारों लेकिन
हमने सब कुछ बाँट  दिया मेरे में और तेरे में

आज नजर आती मायूसी मानबता के चहेरे पर
अपराधी को शरण  मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरों  की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में

मदन मोहन सक्सेना