मंगलवार, 3 जुलाई 2012

गठबंधन धर्म की कीमत



गठबंधन धर्म की कीमत

अकबर जब पहली बार हाथी पर बैठे तो उन्होंने लगाम अपने हाथ में मांगी. उन्हें बताया गया कि हाथी को लगाम नहीं होती उसे तो अंकुश से नियंत्रित किया जाता है. तो अकबर ने कहा कि अंकुश उनके हाथ में दे दी जाए. उन्हें बताया गया कि अंकुश तो महावत के हाथ में होती है, आपको नहीं मिल सकती. ये सुन अकबर तुरंत हाथी से नीचे उतर गए और कहा कि जिसका अंकुश मेरे हाथ में हो वो काम मैं नहीं करता. इतिहास गवाह है कि अकबर कितने बड़े राजा थे.
मनमोहन जब से रिमोट कंट्रोल प्रधानमंत्री बने हैं तबसे वो कुछ भी अच्छा नहीं कर पा रहे. आज भारतीय मुद्रा रुपये की कीमत दिन पर दिन गिरती जा रही है. महंगाई और भ्रष्टाचार ने देश की रफ्तार रोक दी है. ऊपर से प्रधानमंत्री कहते हैं कि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है. वो कैसे अर्थशास्त्री हैं जो अपनी गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं. मनमोहन सिंह एक नाकाम प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने देश को गर्त में धकेला है और इसकी वजह ये है कि वो हर काम सोनिया गांधी के इशारे पर करते हैं.एक अर्थशास्त्री के तौर पर भी मनमोहन जी असहाय दिख रहे हैं. लगता है कि वो भारत के अर्थशास्त्र को नहीं समझ पाए. उन्होंने भारत को आधार देनेवाले आतंरिक निवेशों की तरफ बहुत कम ध्यान दिया, वो रुपये के अवमूल्यन और महंगाई को रोकने में सफल नहीं रहे और ना ही उनके पास कोई रोडमैप है जिससे हम आनेवाले दिनों में एक बेहतर अर्थव्यवस्था की उम्मीद कर सकें.
व्यक्ति का किसी विषय का विशेषज्ञ होना उसके नेतृत्व क्षमता की गारंटी नहीं होता है. कोई प्रतिष्ठित वैज्ञानिक हो, नोवेल पुरस्कार विजेता लेखक हो, नामीगिरामी सर्जन हो, अथवा सुस्थापित व्यवसायी हो, तो यह मान कर चलना भूल होगी कि वह प्रधानमंत्री के तौर पर भी सफल होगा ही. डॉ. मनमोहन सिंह वास्तव में उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री हैं या प्रशंसक उनकी योज्ञता बड़ा-चढ़ाकर बताते हैं यह कहना कठिन है. बहरहाल उनमें नेतृत्व एवं कठोर निर्णय की क्षमता है, यह वे नहीं सिद्ध कर सके हैं.हमलोगों को याद रखना चाहिए कि अर्थशास्त्र में नोबेल पुरुस्कार पानेवाले कई लोगों के सिद्धांत भी गलत साबित हुए हैं और उनकी देखरेख में चल रही कंपनियां धराशाई भी हुई हैं. इससे साबित होता है कि अर्थशास्त्र कोई कला या विज्ञान नहीं है. राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र ये दोनों ही अलग हैं. हाँ ये भी सच है कि हाल के दिनों में इन्होंने सिर्फ लेबल चिपकाने वाला काम किया है चाहे वो मुद्रास्फीति हो या घाटे का बजट.देश के पूँजीपतियों, नेताओं, नौकरशाहों और मीडिया ने मनमोहन सिंह को अर्थशास्त्री बनाया था. उनमें तो नेतृत्व की क्षमता है और ही निर्णय लेने की. देश में 25 करोड़ लोग आधा पेट भोजन करते है और आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे रहते है. इनसे सफल अर्थशास्त्री तो हमारी माँ और बहनें है, जो गरीबी में भी परिवार का भरण और पोषण कर रही हैं. मनमोहन जी को अर्थशास्त्र गृहिणियों से सीखने की जरूरत है.
मनमोहन सिंह एक असफल प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री दोनों हैं. वो गठबंधन धर्म को ऊपर और राष्ट्रधर्म को बाद में रखते हैं. उनकी ही नीतियों या फैसला कर पाने की वजह से देश की दुर्दशा हो रही है.



प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना  

बुधवार, 6 जून 2012

ग़ज़ल



कल  तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक  शक्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है

बीती उम्र कुछ इस तरह की खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है

गर कहोगें दिन  को दिन तो लोग जानेगें गुनाह 
अब आज के इस दौर में दिख्रे नहीं इन्सान है

इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये वक़्त की साजिश है या फिर वक़्त का एहसान है

गैर बनकर पेश आते, वक़्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है 

प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर 
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है 
 
ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 4 जून 2012

ग़ज़ल






दुनिया में जिधर देखो हजारो रास्ते  दीखते
मंजिल जिनसे मिल जाए बो रास्ते नहीं मिलते

किस को गैर कहदे हम और किसको  मान  ले अपना
मिलते हाथ सबसे है दिल से दिल नहीं मिलते

करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलो से
शिकायत सबको उनसे है क़ी उनके लब नहीं हिलते

ज़माने की हकीकत को समझ  जाओ तो अच्छा है
ख्बाबो  में भी टूटे दिल सीने पर नहीं सिलते

कहने को तो ख्बाबो में हम उनके साथ रहते है
मुश्किल अपनी ये की हकीक़त में नहीं मिलते


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 27 मई 2012

मुक्तक



दिल में जो तमन्ना है जुबां से हम न कह पाते 
नजरो से हम कहतें हैं अपने दिल की सब बातें 
मुश्किल अपनी ये है की   समझ बह कुछ नहीं पातें
पिघल कर मोम हो जाता यदि पत्थर को समझाते


प्रस्तुति: 
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 24 मई 2012

ग़ज़ल


सजाए  मोत का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों बो अब हमसे कफ़न उधर दिलाने  की बात करते है

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके एक इशारे पर 
ना जाने क्यों बो अब हमसे ज़माने की बात करते है

दर्दे दिल मिला उनसे बो हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर बो हमसे अब मरहम लगाने की बात करते है

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे बो अब चुराने की बात करते है

नजरे जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
न जाने क्यों बो अब हमसे प्यार छुपाने की बात करते है




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 23 मई 2012

मुक्तक


मयखाने की चौखट को कभी मदिर न समझना तुम
मयखाने जाकर पीने की मेरी आदत नहीं थी ...

चाहत से जो देखा मेरी ओर उन्होंने
आँखों में कुछ छलकी मैंने थोड़ी पी थी...




प्रस्तुति: 
मदन मोहन सक्सेना 

ग़ज़ल




बोलेंगे  जो  भी  हमसे  बो ,हम ऐतवार कर  लेगें      
जो कुछ  भी उनको प्यारा  है ,हम उनसे प्यार कर  लेगें 

बो  मेरे   पास  आयेंगे   ये  सुनकर  के   ही  सपनो  में 
 क़यामत  से क़यामत तक हम इंतजार कर लेगें 

मेरे जो भी सपने है और सपनों में जो सूरत है
उसे दिल में हम सज़ा करके नजरें चार कर लेगें

जीवन भर की सब खुशियाँ ,उनके बिन अधूरी है 
अर्पण आज उनको हम जीबन हजार कर देगें 

हमको प्यार है उनसे और करते प्यार बो हमको 
गर  अपना प्यार सच्चा है तो मंजिल पर कर लेगें



ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 22 मई 2012

ग़ज़ल




क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है.
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में ..

एक जमी बक्शी  थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में 

आज नजर आती मायूसी मानाबता के चहेरे पर  
अपराधी को सरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में.
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना