सोमवार, 26 दिसंबर 2016

ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)







ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)

बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे
माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता

नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ
मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता

मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को
माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता

उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा
माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता

खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में
माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता

जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है
क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता

ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)
 

मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

हुए दुनिया से बेगाने हम जिनके इक इशारे पर


सजाए  मौत  का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 

ना जाने क्यों बो अब हमसे कफ़न उधार दिलाने  की बात करते हैं 

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके इक  इशारे पर 
ना जाने क्यों बो अब हमसे ज़माने की बात करते हैं

दर्दे दिल मिला उनसे बो हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर बो हमसे अब मरहम लगाने की बात करते हैं

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे बो अब चुराने की बात करते हैं

नजरें  जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
न जाने क्यों बो अब हमसे प्यार छुपाने की बात करते हैं

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके इक  इशारे पर 
 
 
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी

जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था

बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था

मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था

सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था

उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था

जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था

मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

लेखनी का कागज से स्पर्श

लेखनी का कागज से स्पर्श








अपने अनुभबों,एहसासों ,बिचारों को
यथार्थ रूप में
अभिब्यक्त करने के लिए
जब जब मैनें लेखनी का कागज से स्पर्श किया
उस समय  मुझे एक बिचित्र प्रकार के
समर से आमुख होने का अबसर मिला
लेखनी अपनी परम्परा प्रतिष्टा मर्यादा  के लिए प्रतिबद्ध थी
जबकि मैं यथार्थ चित्रण के लिए बाध्य था 
इन दोनों के बीच कागज मूक दर्शक सा था 
ठीक उसी तरह जैसे 
आजाद भारत की इस जमीन पर 
रहनुमाओं तथा अन्तराष्ट्रीय बित्तीय संस्थाओं के बीच हुए 
जायज और दोष पूर्ण अनुबंध    को 
अबाम   को मानना अनिबार्य सा है 
जब जब लेखनी के साथ समझौता किया 
हकीकत के साथ साथ  कल्पित बिचारों को न्योता दिया 
सत्य से अलग हटकर लिखना चाहा
उसे पढने बालों ने खूब सराहा 
ठीक उसी तरह जैसे 
बेतन बृद्धि  के बिधेयक को पारित करबाने में
बिरोधी पक्ष    के साथ साथ  सत्ता पक्ष   के राजनीतिज्ञों 
का बराबर का योगदान रहता है 
आज मेरी प्रत्येक रचना 
बास्तबिकता  से कोसों दूर
कल्पिन्कता का राग अलापती हुयी 
आधारहीन तथ्यों पर आधारित 
कृतिमता के आबरण में लिपटी हुयी
निरर्थक बिचारों से परिपूर्ण  है 
फिर भी मुझको आशा रहती है कि
पढने बालों को ये 
रुचिकर सरस ज्ञानर्धक लगेगी 
ठीक उसी तरह जैसे
हमारे रहनुमा बिना किसी सार्थक प्रयास के
जटिलतम समस्याओं का समाधान 
प्राप्त होने कि आशा 
आये दिन करते रहतें हैं
अब प्रत्येक रचना को
लिखने के बाद 
जब जब पढने  का अबसर मिलता है 
तो लगता है कि 
ये लिखा मेरा नहीं है 
मुझे जान पड़ता है कि
मेरे खिलाफ
ये सब कागज और लेखनी कि
सुनियोजित साजिश का हिस्सा है
इस लेखांश में मेरा तो नगण्य हिस्सा है
मेरे  हर पल की  बिबश्ता  का किस्सा है
ठीक उसी तरह जैसे
भेद भाब पूर्ण किये गए फैसलों
दोषपूर्ण नीतियों के  नतीजें आने  पर
उसका श्रेय 
कुशल राजनेता 
पूर्ब बर्ती सरकारों को दे कर के
अपने कर्तब्यों कि इतिश्री कर लेते हैं



मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 16 नवंबर 2016

मुझे दिल पर अख्तियार था ये कल की बात है



उनको तो हमसे प्यार है ये कल की बात है
कायम ये ऐतबार था ये कल की बात है

जब से मिली नज़र तो चलता नहीं है बस
मुझे दिल पर अख्तियार था ये कल की बात है

अब फूल भी खिलने लगा है निगाहों में
काँटों से मुझको प्यार था ये कल की बात है

अब जिनकी बेबफ़ाई के चर्चे हैं हर तरफ
बह पहले बफादार था ये कल की बात है

जिसने लगायी आग मेरे घर में आकर के
बह शख्श मेरा यार था ये कल की बात है

तन्हाईयों का गम ,जो मुझे दे दिया उन्होनें
बह मेरा गम बेशुमार था ये कल की बात है

मुझे दिल पर अख्तियार था ये कल की बात है

मदन मोहन सक्सेना


बुधवार, 2 नवंबर 2016

जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता




दीवारें ही दीवारें , नहीं दीखते अब घर यारों
बड़े शहरों के हालात कैसे आज बदले हैं

उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं

जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता है
दुश्मन दोस्त रंग अपना, समय पर आज बदले हैं

जीवन के सफ़र में जो पाया है सहेजा है
खोया है उसी की चाह में ,ये दिल क्यों मचले है

मिलता अब समय ना है , समय ये आ गया कैसा
रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं







जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता


मदन मोहन सक्सेना































बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

कहतें दीपक जलता है







 


किस की कुर्वानी को किसने याद रखा है दुनियाँ में
जलता तेल औ बाती है कहतें दीपक जलता है

पथ में काँटें लाख बिछे हो मंजिल मिल जाती है उसको
बिन भटके जो इधर उधर ,राह पर अपनी चलता है

मिली दौलत मिली शोहरत मिला है यार सब कुछ क्यों
जैसा मौका बैसी बातें , जो पल पल बात बदलता है

छोड़ गया जो पत्थर दिल ,जिसने दिल को दर्द दिया है
दिल भी कितना पागल है ये उसके लिए मचलता है

दो पल गए बनाने में औ दो पल गए निभाने में
रिश्तों के कोलाहल में ये जीवन ऐसे ही चलता है


कहतें दीपक जलता है

मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

सब एक जैसे

आमिर शाहरुख़ सलमान सब एक जैसे 
सिर्फ चिंता अपनी फिल्मों की

रविवार, 18 सितंबर 2016

फिर एक बार

फिर एक बार 




फिर एक बार देश ने आंतकी हमला झेला 
फिर एक बार कई सैनिक शहीद हो गए 
फिर एक बार परिबारों ने अपनोँ  को खोने का दंश झेला 
फिर एक बार गृह , रक्षा मंत्री ने घटना स्थल का दौरा किया
फिर एक बार हाई लेवल मीटिंग की गयी 
फिर एक बार 
सभी दलों ने घटना की निंदा की 
फिर एक बार मीडिया में चर्चा हुयी 
फिर एक बार 
प्रधान मंत्री ने देश को भरोसा दिलाया कि  गुनाहगार को बख्शा नहीं जायेगा 




मदन  मोहन सक्सेना



मंगलवार, 6 सितंबर 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १२ ,सितम्बर २०१६ में प्रकाशित



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,
बर्ष -२ , अंक १२  ,सितम्बर  २०१६ में प्रकाशितहुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

















अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में 
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं  
 
मुश्किल यार ये कहना  किसका अब समय कैसा
समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं। 


मदन मोहन सक्सेना